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एक अजनवी तुम दैनिक लेखनी कहानीण प्रतियोगिता -22-Sep-2023


                   एक अजनबी तुम

         " नारायण  नारायण  !" इस आवाज को सुनकट  सुशीला ने अपनी बहू को आवाज देकर कहा, " निशा देखना दरवाजे पर कौन है?"

       "देखती हूँ माँजी ! " इतना कहकर  निशा ने दरवाजा खौला। उसे बाहर  एक साधू बाबा नजर आए।  बाबा की लम्बी लम्बी दाड़ी व लम्बे बाल थे। उनकी आँखौ से तेज प्रकट हो रहा था। 

        एक अजनवी साधू बाबा को देखकर  निशा अंदर गयी और अपनी सास से बोली," माँ जी कोई  अजनवी साधू आए  हैं पहले तो इनको यहाँ कभी नहीं देखा है ?"

   सुशीला साधू को देने के लिए  आटा व कुछ  फल लेकर गई। साधू का चेहरा  देखकर  सुशीला को अपने पति की याद आगई।  साधू का चेहरा सुशीला के पति  से हूबहू मिल रहा था। सुशीला उनको पहली नजर में ही पहचान  गई।  वह उनको भूल भी कैसे सकती थी। उनके साथ सुशीला ने चालीस वर्ष  गुजारे थे। आज भी कुछ  नहीं बदला था। केवल बाल बढ़े हुए  थे। वही शरीर वही आँखौ में तेज बरकरार  था। सुशीला  उनको पति कैसे कह सकती थी।

         "महाराज जी आपका नाम क्या है? आप कहाँ से आए  हो?", सुशीला ने प्रश्न किया।

       "तुम्हारा क्या नाम है ?" साधू ने पूछा।

       " सुशीला!"

       देखो सुशीला ! साधू का कोई  नाम जाति व ठिकाना नहीं होता है। इसलिए  साधू की जाति नाम व ठिकाना नहीं पूछना चाहिए  ? उससे केवल ज्ञान लेना चाहिए। "

        "फिर भी आप साधू क्यौ हुए  ?  घरबार  छोड़कर  साधू का रूप धारण  करने का कोई  कारण तो रहा होगा?" सुशीला ने चतुराई  दिखाते हुए  प्रश्न किया।

          " तुम्हें किसी भी साधू से इस तरह के प्रश्न पूछना सही नहीं है।  हर एक आदमी की अपनी निजी समस्या होती है बालिके?" इतना कहकर  वह साधू जाने लगे । लेकिन  सुशीला ने उनको खाना खाने के लिए  रोक लिया।

          सुशीला को आज पचास वर्ष  पहले की यादें ताजा होगई।  किस तरह वह पहली बार इस घर में बहू बनकर  आई थी।  सुशीला ने अपने पति विवेक  के कन्धा से कन्धा मिलाकर जीवन गुजारा था। पति जो भी कमाकर  लाते थे तब सुशीला किस तरह घर चलाती थी।
        बच्चे बड़े  हुए  सबको पढा़या शादी बिबाह  किया। जब शरीर को आराम देने का समय आया तब बच्चे ताने मारकर कहने लगे आप लोगों ने हमारे साथ  कुछ  अलग तो नहीं किया। ऐसा तो सभी मां बाप अपने बच्चौ के साथ करते हैं।

         यह बात हर रोज की होगयी।  विवेक एक रात स्वाभिमान  वश  अपना सब कुछ  छोड़कर  सुशीला को सोता हुआ  छोड़कर  घर से चला गया। और वह विवेक से विवेकानंद  बन गया।

    विवेक सुशीला के लिए  एक खत छोड़कर  गया था। जिसमें लिखा था सुशीला मुझे मांफ करना मैं  अपना वचन  तोड़कर  तुम्हें अकेला छोड़कर  जारहा हूँ। अब मुझसे इन बच्चौ के ताने सहन नहीं होते है। अपना ध्यान  रखना। तुम तो काम में ब्यस्त  होजाती हो लेकिन  मेरे पास तो कोई  काम भी नहीं है।

       विवेक अपना मोबाइल  भी लेकर  नहीं गये थे। वह उस दिन  के बाद  आज आये थे।

      सुशीला ने विवेक की पसंद का खाना बनाया था। सुशीला ने साधू बने विवेक  से पूछा," महाराज  जी मैरे पति मुझे इस मझधार  मैं अकेला छोड़कर  चलेगये ।क्या उन्होंने मेरे साधयह ठीक किया था? मैं औरत जात कहाँ जाती?  वह तो पुरुष  थे। मैं आजतक  इन बच्चौ की  सब बातें सहन करके भी जिन्दा हूँ। मैं किस पाप की सजा भुगत रही हूँ ? अब यह शरीर आराम चाहता है लेकिन  मैं आज भी काम करती हूँ ।"

       विवेक से विवेकानंद  बना वह सब  अजनवी बनकर  सुनता रहा। विवेकानंद  बना विवेक  दिल में स्वयं कौ दोषी ठहरा रहा था लेकिन  कुछ  बोलने से कतरा  रहा था। उसके मन में पश्चाताप  था लेकिन  अब वह ऐसी दुनियां में चलागया था जहाँ  मोह ममता से बाहर  निकल  कर ही भलाई  थी।

      वह अजनवी बना रहकर ही वहाँ से चला गया। सुशीला  उनको रोक भी  न सकी। और उसने अजनवी समझकर  उसे जाने दिया।


आज की दैनिक  प्रतियोगिता हेतु रचना।

नरेश  शर्मा "पचौरी "

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3 Comments

hema mohril

26-Sep-2023 01:58 PM

Awesome

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Mohammed urooj khan

22-Sep-2023 10:38 PM

👌👌👌👌👌

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Varsha_Upadhyay

22-Sep-2023 09:24 PM

Nice 👌

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